Monday 15 September 2008

रौशनी की ओर...

अंधियारी
सड़क पर चलते हुए
एक मोड़ पर दिख गई रौशनी इक ओर,
मैं बढ चला उसी ठोर;
हर कदम वो मुझ से दूर जाती रही,
मुझे पास बुलाती रही, और मैं बढता
गया उसी ओर, उस रौशनी की ठोर|
हर कदम पर याद आई वो चिडिया
जो तिनका तिनका जोड़ कर,
घर बनाया करती थी,छत से रोज़
गिरा देते थे उसका घोंसला, वो
फ़िर नया बनाया करती थी,
वो बुडिया जो दादी की कहानियों में
रोज़ आया करती थी, लकडियाँ
काट कर रोज़ खाना पकाया
करती थी, और फ़िर याद आया वो
मज़दूर जिसे स्कूल बस से देखा
करता था, रोज़ चाय की दुकान
पे वो सुबह सुबह रात की
रोटी चखता था|
इन सब को भी नज़र आई
होगी शायद यही रौशनी,
जो आज मुझे अचानक अंधियारी
सड़क पे चलते हुए, गली के उस छोर
पे दिख गई, और मैं बढ चला
उसकी ठोर, उस रौशनी की ओर...

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