Wednesday, 24 September 2008

श्रधांजलि

''सुनूँ क्या सिन्धु मैं गर्जन तुम्हारा, स्वयं युग-धर्म का हुंकार हूँ मैं,
या मरते मानव की विजय का दूर्य हूँ मैं, उर्वशी अपने समय का सूर्य हूँ मैं|''
--- 'दिनकर'

छायावाद के एक महानतम कवि को उनके जन्म शताब्दी वर्ष पर शत शत नमन |

'जानता है तू की मैं कितना पुराना हूँ,
मैं चुका हूँ देख मन को जन्मते मरते,
और लाखों बार तुझसे पागलों को भी
चांदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते|
आदमी का स्वप्न है वो बुलबुला जल का,
आज उड़ता और कल फ़िर फूट जाता है;
किंतु फ़िर भी धन्य ठेहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता कविता बनाता है|'
--- रामधारी सिंह 'दिनकर'

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